भारत की प्रजातियाँ व जनजातियाँ | India’s Main Species and Tribal
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डॉ.बी.एस. गुहा ने 1944 भारतीय जनसमूह को 6 बड़े और 9 छोटे भागों में बाँटकर देखा है .
- नीग्री
- प्रोटो – आस्ट्रेलायड
- पंगोलायड ( i ) पुरा – मंगोलायड ( ii ) तिब्बती मंगोलायड
- भूमध्यसागरीय (i ) पुरा – भूमध्यसागरीय ( ii ) भूमध्य सागरीय ( iii ) प्राच्य
- ब्रैकिसेफल ( विशाल सिर वाले पश्चिमी लोग ) ( i ) अल्पाइन ( ii ) अल्पीनायड ( iii ) डिनॉरिक्स
- नॉर्डिक
भारत में पाए जाने वाले नीग्रिटो , प्रोटो – आस्ट्रेलायड व मंगोलायड प्रजातियों के लोग आदिवासी जनजातियों के अंतर्गत आते हैं ।
- नीग्रिटो : अंडमान – निकोबार एवं त्रावनकोर व कोचीन की पहाड़ियों में पाई जाती हैं ।
- प्रोटो – आस्ट्रेलायड : ये मध्य एवं द . भारत की कबीलाई जनजातियों की प्रजातियाँ हैं ।
- मंगोलायड ( क ) पुरा – मंगोलायड ( i ) लंबा सिर वाला ( ii ) चौड़ा सिर वाला ( असम और हिमालय क्षेत्र ) ( ख ) तिब्बती – मंगोलायड – लेह , लद्दाख विकसित प्रजातियों के अंतर्गत पुरा – भूमध्यसागरीय , भूमध्यसागरीय , प्राच्य , नॉर्डिक एवं प . लघु कापालिक लोग आते हैं ।
- पुरा – भूमध्यसागरीय – दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत की निग्न जातियाँ दीर्घ कापालिक होते हैं ।
- भूमध्यसागरीय – उत्तर भारत की उच्च जातियाँ ।
- प्राच्य पंजाब , राजस्थान , सिंध , गुजरात , महाराष्ट्र आदि के लोग हैं ।
- प . लघु कापालिक – दक्षिणी बलूचिस्तान , सिंध , गुजरात , महाराष्ट्र में पाए जाते हैं ।
- नॉर्डिक – उ -उत्तर – पश्चिम भारत के लोग ।
भारत में आने वाला सबसे पहला प्रजाति समूह नीग्रो था ।
India’s Main Species and Tribal
- भारत की प्रजातियाँ व जनजातियाँ
- भारत की प्रमुख जनजाति क्षेत्र
- राजस्थान की जनजातियाँ :
- झारखंड की जनजातियाँ :
- भारत की अन्य जनजातियाँ
- जनजातीय क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान
- वनबंधु कल्याण योजना
भारत की प्रमुख जनजाति क्षेत्र
- भौगोलिक एकाकीपन ,
- विशिष्ट संस्कृति ,
- आदिम जाति के लक्षण ,
- पिछड़ापन और
- संकोची स्वभाव शामिल है ।
भारत में कुल 461 जनजातियाँ हैं , जिनमें 424 अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत है । इन्हें सात क्षेत्र में बाँट सकते हैं
- उत्तरी क्षेत्र : इसके अंतर्गत जम्मू – कश्मीर , उत्तराखंड , हिमाचल प्रदेश क्षेत्र की जनजाति है । इन जनजातियों में लाहुल , लेपचा , भोटिया , थारू , बुक्सा , जौनसारी , खम्पा , कनौटा है । इन सभी में मंगोल प्रजाति के लक्षण मिलते हैं । भोटिया अच्छे व्यापारी होते हैं तथा चीनी – तिब्बती परिवार की भाषा बोलते हैं।
- पूर्वोत्तर क्षेत्र : असम , अरूणाचल , नागालैंड , मणिपुर , त्रिपुरा , मेघालय , मिजोरम की जनजातियाँ इनके अंतर्गत आते हैं । दार्जिलिंग व सिक्किम में लेपचा , अरूणाचल में अपतनी , मिरी , डफला व मिश्मी , असम – मणिपुर सीमावर्ती क्षेत्र में हमर जनजाति , नागालैंड व पूर्वी असम में नागा , मणिपुर और त्रिपुरा में कुकी , मिजोरम में लुशाई आदि जनजातियाँ आती है । अरूणाचल के तवांग में बौद्ध जनजातियाँ मोनपास , शेरवुकपेंस और खाम्पतीस रहती है । वर्तमान में चीन इस पर अपना दावा कर रहा है । नागा जनजाति उत्तर में कोनयाक , पूर्व में तंखुल , दक्षिण में कबुई , पश्चिम में रेंगमा व अंगामी एवं मध्य में लहोटा व फोम आदि उपजातियों में बँटी हुई है । मेघालय में गारो , खासी व जयंतिया जनजातियाँ मिलती है । पूर्वोत्तर क्षेत्र की सभी जनजातियों में मंगोलायड प्रजाति के लक्षण मिलते हैं । ये तिब्बती , बर्मी , श्यामी एवं चीनी परिवार की भाषा बोलती है । ये खाद्य संग्राहक , शिकारी , कृषक एवं बुनकर होते हैं ।
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- पूर्वी क्षेत्र : इसके अंतर्गत झारखंड पश्चिम बंगाल , ओडिशा व बिहार की जनजातियाँ आती हैं । जुआंग , खरिया , खोंड , भूमिज ओडिशा की जनजातियाँ हैं । मुंडा , उराँव , संथाल , हो , बिरहोर झारखंड की जनजातियाँ हैं । पश्चिम बंगाल में मुख्यतः संथाल , मुंडा व उराँव जनजातियाँ मिलती हैं । ये सभी जनजातियाँ प्रोटो – आस्ट्रेलायड प्रजाति से सम्बंधित हैं । इनका रंग काला अथवा गहरा भूरा , सिर लंबा , नाक चौड़ी – छोटी व दबी हुई । बाल हल्के घुघराले होते हैं । ये B रक्त – समूह के होते हैं । ये ऑस्ट्रिक भाषा परिवार के हैं तथा कोल व मुंडा भाषा बोलते हैं ।
- मध्य क्षेत्र : इसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश , पश्चिमी राजस्थान व उत्तरी आंध्र प्रदेश की जनजातियाँ आती हैं । छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियाँ बैगा , मारिया , अबूझमारिया है । मध्य प्रदेश के मंडला जिला व छत्तीसगढ़ के बस्तर जिला में इनका संकेन्द्रण अधिक है । पूर्वी आंध्र प्रदेश में भी ये जनजातियाँ मिलती हैं । ये सभी जनजातियाँ प्रोटो – आस्ट्रेलायड से सम्बंधित हैं ।
- पश्चिमी भाग : इसके अंतर्गत गुजरात , राजस्थान , पश्चिमी मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र की जनजातियाँ आती हैं । भील , गरासिया मीना , बंजारा , सांसी व सहारिया राजस्थान की , महादेव कोली , बाली व डब्ला गुजरात की एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश की जयन्ति है । ये सभी जनजातियाँ प्रोटो – आस्ट्रेलायड प्रजाति की हैं । ये सभी ऑस्ट्रिक भाषा Pr परिवार की बोलियाँ बोलती हैं ।
- दक्षिणी क्षेत्र : इसके अंतर्गत मध्य व दक्षिणी – पश्चिमी घाट की जनजातियाँ आती हैं , जो 200 उत्तरी अक्षांश से दक्षिण की ओर फैली हैं । पश्चिमी आंध्र प्रदेश , कनार्टक , पश्चिमी तमिलनाडु और केरल की जनजातियाँ इसके अंतर्गत आती है । नीलगिरि के क्षेत्र में टोडा , कोटा व बदागा सबसे महत्वपूर्ण जनजातियाँ है । टोडा जनजाति में बहुपति विवाह प्रथा ( Polyandry ) प्रचलित कुरूम्बा , कादर , पनियण , चेचूँ , अल्लार , नायक , चेट्टी आदि जनजातियाँ दक्षिणी क्षेत्र की अन्य महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं । ये नीग्रिटो प्रजाति से सम्बंधित हैं । ये द्रविड़ भाषा परिवार के अंतर्गत आते हैं ।
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- द्वीपीय क्षेत्र : इसके अंतर्गत अंडमान – निकोबार एवं लक्षद्वीप समूहों की जनजातियाँ आती हैं । अंडमान – निकोबार की शोम्पेन , ओन्गे , जारवा व सेंटीनली महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं , जो अब धीरे – धीरे विलुप्त हो रही है । ये नीग्रिटो प्रजाति से सम्बंधित है । मछली मारना , शिकार करना , कंदमूल संग्रह आदि इनका जीवनयापन का आधार है ।
भारत की जनजातियाँ
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- थारू : ये नैनीताल से लेकर गोरखपुर एवं तराई क्षेत्र में रहती है तथा किरात वंश की है । इनमें संयुक्त परिवार प्रथा है । कई परिवार ऐसे भी हैं , जिनमें सदस्यों की संख्या पाँच सौ तक है ।
- बुक्सा : उत्तराखंड के नैनीताल , पौड़ी , गढ़वाल , देहरादून जिलों में ये पाए जाते हैं । इनका सम्बंध पतवार राजपूत घराने से माना जाता है । ये हिंदी भाषा बोलते हैं । हिन्दुओं की तरह इनमें भी अनुलोम व प्रतिलोम विवाह प्रचलित है ।
- राजी अथवा बनरौत : उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद में पाई जाने वाली कोल – किरात जातियाँ हैं । ये हिन्दू हैं तथा झूमिंग प्रथा से कृषि करते हैं ।
- खरवार : उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में निवास करने वाली यह खूखार व बलिष्ठ जनजाति है ।
- जौनसारी : ये उत्तराखंड के देहरादून , टेहरी – गढ़वाल , उत्तरकाशी क्षेत्र में मिलते हैं । ये भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से सम्बंधित हैं । इनमें बहुपति विवाह प्रथा पाई जाती है । .
- भोटिया : उत्तराखंड के अल्मोढ़ा , चमोली , पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी क्षेत्रों में पाई जाने वाली ये जनजाति मंगोल प्रजाति की है तथा ऋतु – प्रवास करती है ।
मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ : गोंड , मुंडा , कोरकू , कोरबा , कोल , सहरिया , हल्वा , मारिया , बिरहोर , भूमियाँ , ओराँव , मीना आदि यहाँ की प्रमुख जनजातियाँ हैं । छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला कुल जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । झाबुआ जिला जनजातीय जनसंख्या प्रतिशत के अनुसार सर्वोपरि है ।
- गोंड : भारत की जनजातियों में गोंड जनजाति सबसे बड़ी है । ये प्राक् – द्रविड़ प्रजाति की है । इनकी त्वचा का रंग काला , बाल काले , होंठ मोटे , नाक बड़ी व फैली हुई होती है । ये मुख्यः छत्तीसगढ़ के बस्तर , चांदा , दुर्ग जिलों में मिलती हैं । आंध्र प्रदेश व ओडिशा में भी इनकी कुछ जनसंख्या है ।
- मारिया : मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के छिंदवाड़ा , जबलपुर और बिलासपुर जिलों में रहने वाली इस जनजाति की शारीरिक रचना गोंड जनजाति के समान है ।
- कोल : मध्य प्रदेश के रीवा सम्भाग और जबलपुर जिले में निवास करने वाली इस जनजाति का मुख्य पेशा कृषि है ।
- कोरबा : छत्तीसगढ़ के बिलासपुर , सरगुजा और रायगढ़ जिले में निवास करने वाली जनजाति है झारखंड राज्य के पलामू जिले में भी ये मिलती हैं । ये मुख्यतः जंगली कंद – मूल एवं शिकार पर निर्भर हैं । कुछ कोरबा कृषक भी हैं । कोरबा जनजाति का मुख्य त्योहार करमा है । इनमें सर्प पूजा की प्रथा भी प्रचलित है ।
- सहरिया : मध्य प्रदेश के गुना , शिवपुरी व मुरैना जिलों में निवास करने वाली ये जनजातियाँ कंदमूल व शहद संग्रह कर जीविका निर्वाह करती हैं ।
- हल्वा : छत्तीसगढ़ के रायपुर व बस्तर जिलों में निवास करने वाली जनजाति । इनकी बोली में मराठी भाषा के शब्दों का अधिक प्रयोग होता है । ये लोग कृषक हैं ।
- कोरकु : यह भी मुंडा या कोलेरियन जनजाति की शाखा है तथा मध्य प्रदेश के निमाड़ , होशंगाबाद , बैतूल , छिंदवाड़ा जिलों में निवास करती है । ये कृषक हैं ।
राजस्थान की जनजातियाँ :
- मीणा : राजस्थान में इस जनजाति की सर्वाधिक संख्या पाई जाती है । ये मुख्यतः जयपुर , सवाई माधोपुर , उदयपुर , अलवर , चित्तौड़गढ़ , कोटा , बूंदी व डूंगरपुर जिलों में रहते हैं । पौराणिक मान्यताओं के आधार पर इस जनजाति का सम्बंध भगवान मत्स्यावतार से है । मीणा जनजाति शिव व शक्ति के उपासक हैं ।
- भील : ये राजस्थान की द्वितीय प्रमुख जनजाति है तथा बाँसवाड़ा , डूंगरपुर , उदयपुर , सिरोही , चित्तौड़गढ़ और भीलवाड़ा जिलों में निवास करती हैं । भील का अर्थ है धनुषधारी । ये स्वयं को महादेव की संतान मानते हैं । भील जनजाति प्रोटो – आस्ट्रेलायड प्रजाति की हैं । इनका कद छोटा व मध्यम , आँखें लाल , बाल रूखे व जबड़ा कुछ बाहर निकला हुआ होता है । भीलों में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है । ये सामान्यतः कृषक हैं ।
- गरासिया : मीणा व भील के बाद राजस्थान की तीसरी प्रमुख जनजाति है । ये मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान में रहते हैं । ये चौहान राजपूतों के वंशज हैं परंतु अब भीलों के समान आदिम प्रकार का जीवन व्यतीत करने लगे हैं । इनमें मोर बंधिया , पहरावना व ताणना तीन प्रकार के विवाह प्रचलित हैं ।
- साँसी : यह राजस्थान के भरतपुर जिले में रहने वाली खानाबदोश जनजाति है । यह जनजाति स्वयं को बाल्मिकियों से भी नीचा मानती है ।
- संथाल : यह भारत की एक प्रमुख जनजाति व झारखंड की सर्वप्रमुख जनजाति है । यह बंगाल , ओडिशा व असम राज्यों में भी पाई जाती है । ये झारखंड में मुख्यतः संथाल परगना , राँची , सिंहभूम , हजारीबाग , धनबाद आदि जिलों में रहते हैं । संथाल आस्ट्रेलॉयड और द्रविड़ प्रजाति के होते हैं । ये मुंडा भाषा बोलते हैं व प्रकृतिपूजक हैं । इनका मुख्य व्यवसाय आखेट , कंदमूल संग्रह व कृषि है । ब्राह्मण , सोहरई व सकरात इनके मुख्य पर्व है ।
- कोरबा : ये झारखंड के पलामू जिले में पाई जाती हैं । मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भी ये निवास कर रहे हैं । यह जनजाति कोलेरियन जनजाति से सम्बंध रखती है ।
- उराँव : यह भी झारखंड की प्रमुख जनजातियों में है । इनका सम्बंध प्रोटो – आस्ट्रेलायड प्रजाति से है । ये कुरूख भाषा बोलते हैं , जो मुंडा भाषा से मिलती – जुलती है । ये मुख्यतः संथाल परगना व रोहतास जिलों में रहते हैं । शिकार , मछली मारना व कृषि इनका व्यवसाय है ।
- असुर : ये मुख्यतः सिंहभूम जिले में रहते हैं । ये भी प्रोटो – आस्ट्रेलॉयड प्रजाति से सम्बंधित हैं । ये मुंडा वर्ग की मालेटा भाषा बोलते हैं । लोहा गलाना , शिकार , मछली मारना , खाद्य संग्रह व कृषि इनका मुख्य व्यवसाय है ।
- सौरिया पहाड़िया : संथाल परगना , गोड्डा , राजमहल आदि जिलों में निवास करने वाली ये कृषक जनजाति हैं ।
- पहाड़ी खड़िया : सिंहभूम जिले की पहाड़ियों में निवास करने वाली यह जनजाति खाद्य संग्रह , बागवानी व कृषि पर निर्भर है ।
- खरवार : यह लड़ाकू व वीर जनजाति है तथा झारखंड के पलामू व हजारीबाग जिले में मिलती है ।
- मुंडा : यह भी झारखंड की प्रमुख जातियों में से है । इनकी अनेक उपजातियाँ हैं ।
भारत की अन्य जनजातियाँ
- नागा : ये नागालैंड , मणिपुर व अरूणाचल प्रदेश की जनजाति है तथा इंडो – मंगोलायड प्रजाति से सम्बंध रखती है । ये अधिकांशत : नग्नावस्था में घूमते हैं । कृषि , पशुपालन व मुर्गीपालन इनका मुख्य व्यवसाय है । ये झूमिंग कृषि करते हैं ।
- टोडा : ये तमिलनाडु की नीलगिरि व उटकमंडक पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति है । इनका सम्बंध भूमध्यसागरीय प्रजाति से है । ये हृष्ट – पुष्ट , सुंदर व गोरे होते है । इनका मुख्य व्यवसाय पशुचारण है । टोडा जनजाति में बहुपति विवाह प्रथा प्रचलित है ।
- शोम्पेन, सेंटीनली, ओंगे व जारवा जनजाति : ये अंडमान निकोबार की विलुप्त होती जा रही जनजातियाँ हैं । ये नीग्रिटो प्रजाति से सम्बंधित हैं ।
भारत में जनजातीय क्षेत्रों की समस्याएँ
- भूमि पर अधिकारों में आती कमी : अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भूमि पर उनका पूर्ण अधिकार था , परंतु उनके आगमन व स्वतंत्रता के पश्चात् तथा वन कानूनों से भूमि पर उनका अधिकार छिनता चला गया , जिनसे इनकी संस्कृति प्रभावित हुई ।
- विस्थापन की समस्या : विभिन्न विकास योजनाओं उद्योग धंधों के निर्माण के कारण से जनजातियों पर विपरीत असर पड़ा है तथा वे बड़ी संख्या में विस्थापित होने को बाध्य हुए हैं ।
- गैर – आदिवासी जनसंख्या का प्रभाव : आदिवासी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती गैर – आदिवासी जनसंख्या से उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है तथा उनमें जनांकिकी परिवर्तन हुए हैं । महाजनी शोषण बढ़ने से वे कर्ज के जाल में फंस गए हैं , जिनकी काफी तीखी प्रतिक्रिया भी हुई है तथा इस क्षेत्र में अशांति का वातावरण बना है । आदिवासी क्षेत्रों में उसका जनांकिकी संतुलन भी बिगड़ रहा 1961 ई . में झारखंड क्षेत्र में कुल आदिवासी जनसंख्या लगभग 50 % था , जो 1991 ई . में 29 % तक पहुँच गया ।
- लिंग – आधारित समस्या : गैर आदिवासियों द्वारा सामाजिक – आर्थिक शोषण के कारण आदिवासी महिलाओं के शोषण की समस्या उभरी है ।
- सांस्कृतिक विलगाव : विस्थापन , जनांकिकी परिवर्तन आदि के कारण सांस्कृतिक रूप से उनकी प्राकृतिक जीवन – शैली पर असर पड़ा है , जिनसे ये जनजातियाँ प्रभावित हुई हैं ।
- शिक्षा सम्बंधी समस्या : विभिन्न जनजातियों में निरक्षरता अभी भी है , जिससे उनमें रूढ़िवादिता है । साक्षरता व शिक्षा के अभाव के कारण उनकी श्रम उत्पादकता का मूल्य कम है तथा वे महाजनी शोषण का भी शिकार हो जाते हैं ।
जनजातीय क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान
स्वतंत्रता के पश्चात् से ही आदिवासियों के विकास हेतु विभिन्न योजनाएँ बनाई जाती रही हैं , परंतु पाँचवीं योजना में जनजातीय उप – योजना के आने के पश्चात् इस प्रक्रिया में तेजी आई है । इसके तहत समेकित
जनजातीय विकास कार्यक्रम ( Integrated Tribal Development Programme – ITDP ) के अंतर्गत 193 परियोजना चलाई जा रही है , जिससे 50 % जनजातीय जनसंख्या लाभान्वित हो रही है ।
ये जिला व विकास प्रखंडों में चल रहे हैं । संशोधित क्षेत्र विकास अभिकरण ( Modified Area Development Agency -MADA ) के अंतर्गत 249 परियोजनाएँ ऐसे केन्द्रों में चलाई जा रही है , जहाँ की अधिकतम जनसंख्या 10,000 तक हो तथा 50 % अधिक जनसंख्या जनजातीय हो । आदिम जनजातीय समूह के विकास के लिए 74 जनजातियों को पहचाना गया है तथा इनके लिए 14 राज्यों एवं केन्द्रशासित राज्यों में सूक्ष्म परियोजनाएं चलाई जा रही हैं ।
जनजातीय उत्पादन के विपणन के लिए TRIFED ( Tribal Federation ) बनाया गया है , जो उन्हें उनके उत्पादन का लाभप्रद मूल्य उपलब्ध करता है । स्थानीय संसाधनों के आधार पर जनजातियों के विकास को गरीबी निवारण कार्यक्रम व समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम ( IRDP ) का अंग बनाया गया है । उनमें शिक्षा के विकास के साथ – साथ उन्हें महाजनी शोषण से बचाने का प्रयास किया जा रहा है उनकी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने पर बल दिया जा रहा है ।
प्रस्तावित नई राष्ट्रीय जनजाति नीति नेहरूवियन एप्रोच पर आधारित है ।
इसमें शिक्षा , स्वास्थ्य सुविधा , पुनर्वास , भूमि – जुड़ाव पर जोर दिया गया है । जनजातीय भाषा का संरक्षण व लेखांकन , प्राथमिक स्तर पर उनको मातृभाषा में शिक्षा को प्रोत्साहन , संयुक्त वन प्रबंधन में जनजातीय भागीदारी को प्रोत्साहन देना शामिल है । जनजातियों को सूचना का अधिकार प्रदान किया गया है , ताकि वे ग्रामीण स्तर पर भूमि – दस्तावेजों से सम्बंधित सूचनाएँ प्राप्त कर सकें । अनुसूचित जनजाति और वनवासी अधिकार विधेयक के अंतर्गत जनजातियों के भूमि सम्बंधी अधिकारों को बढ़ाया गया है । मध्य प्रदेश के अमरकंटक में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय खोला गया है , जो जनजातियों से सम्बंधित विभिन्न अध्ययनों पर केन्द्रित होगा । इससे उनकी विशेषताओं के सम्बंध में जागरूकता बढ़ेगी तथा संवेदनशील प्रयासों के द्वारा उन्हें मुख्य धारा में लाना संभव होगा ।
वनबंधु कल्याण योजना
केंद्रीय जनजातीय कल्याण मंत्रालय ने 28 अक्टूबर , 2014 को वनबंधु कल्याण योजना आरंभ किया । इस स्कीम का उद्देश्य देश की जनजातीय जनसंख्या की बुनियादी संरचना व मानव विकास सूचकांकों में सुधार करना है । इस स्कीम को गुजरात पर तैया की गई है । इस स्कीम के अंतर्गत उन सभी ब्लाकों को 10 करोड़ रुपए उपलब्ध कराया जाएगा । जहाँ जनजातीय जनसंख्या 33 % से अधिक है ।
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औरजानिये। Aurjaniye
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