SATVAHAN VANSH KA ITIHAS- 27 ई . पू . में कण्व - वंश के पतन के पश्चात् सातवाहन - वंश का प्रादुर्भाव हुआ।SATAVAHANAS HISTORY IN HINDI सातवाहन कौन थे Satavahan kaun the उनका मूल निवास स्थान कौन - सा था , तथा उनका अभ्युदय कब हुआ, इस विषय में इतिहासकारों में परस्पर मतभेद है। वायु पुराण में कहा गया है कि आंध्र जाति का सिमुक कण्व सुशमा एवं शुगों की अवशिष्ट शक्ति को नष्ट कर राज्य प्राप्त करेगा। 

अतः पुराणों से ऐसा प्रतीत होता है कि कण्व - वंश का अन्त आंध्र - वंश के द्वारा किया गया था । पुराण सातवाहन वंश को आंध्रजातीय बताते हैं किन्तु उल्लेखनीय है कि सातवाहन वंश के किसी भी अभिलेख में उन्हें आंध्र जाति का नहीं बताया गया है।

 आंध्र जाति अनार्य थी . अतः यदि सातवाहनों को आंध्र जाति का स्वीकार करते हैं तो इसका तात्पर्य यह होगा कि सातवाहन अनार्य थे किन्तु अब प्रमाणित हो चुका है कि सातवाहन आर्य ही थे तथा उनकी जाति ब्राह्मण थी । पुराणों में सातवाहनों को आंध्रजातीय कहा जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि क्योंकि सातवाहन गोदावरी एवं कृष्णा नदी के मध्य आंध्र प्रदेश में रहते थे , अतः पुराणों ने उनके निवास स्थान के आधार पर उन्हें आंध्र कहा। 

 इस प्रकार उनको आंध्र कहा जाना उनकी जाति का नहीं वरनू निवास स्थान का सूचक है। 

सातवाहनों की जाति Cast Of Satavahanas- 

सातवाहन शासक किस जाति के थे , इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। सातवाहनों की जाति के विषय में तीन प्रमुख विचारधाराएं हैं : 

( अ ) अनार्य - ANARYA

कुछ विद्वानों का विचार है कि सातवाहन अनार्य थे । इन विद्वानों में आयंगर प्रमुख हैं। सातवाहनों को अनार्य मानने वाले विद्वान अपने मत के समर्थन में तर्क देते हैं कि अनेक सातवाहन राजाओं के नाम अनार्य थे, जैसे सिमुक हाल , पुलमावी। 

इसके अतिरिक्त , अनार्यों के समान सातवाहन राजाओं ने अपने नाम अपनी माताओं के नाम पर रखे। उदाहरणार्थ, गौतमीपुत्र, वासिष्ठीपुत्र, आदि। सातवाहन राजाओं ने अनार्यों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किए तथा सबसे प्रबल तर्क यह है कि पुराण उन्हें आंध्रजातीय बताते हैं तथा आंध्रजाति अनार्य थी। 

यद्यपि विद्वानों ने अपने इस मत के समर्थन में उपर्युक्त तर्क दिए हैं, किन्तु इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इन तकों का सरलतापूर्वक खण्डन किया जा सकता है। दक्षिणी भारत का आर्यीकरण विलम्ब से हुआ था, इसी कारण सातवाहन राजाओं के नामों पर अनार्य प्रभाव दिखाई देता है। 

यही तर्क अपनी मां के नाम पर अपने नाम रखने के विषय में दिया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि सातवाहन कालीन समाज मातृप्रधान न था। जहां तक अनायों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की बात है, अन्तर्जातीय विवाह प्रत्येक काल में हुए चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी राजकुमारी से विवाह किया था, इस आधार पर उसे यूनानी नहीं माना जा सकता। 

इसके अतिरिक्त , यदि पुराणों में सातवाहनों को आंध्र कहा गया है तो इसका तात्पर्य उनकी जाति से नहीं वरन् उनके निवास स्थान से है । अतः सातवाहनों को अनार्य स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

( ब ) आर्य थे — ARYA

अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन आर्य थे, किन्तु वे ब्राह्मण थे अथवा नहीं, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। जो विद्वान सातवाहनों को ब्राह्मण नहीं मानते उनमें गोपालाचारी व भण्डारकर , आदि प्रमुख हैं। 

ये विद्वान अपने मत के समर्थन में तर्क देते हैं कि नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की तुलना राम, अर्जुन व भीम से की गई है, अतः वह क्षत्रिय रहा होगा । किन्तु इस आधार पर सातवाहनों को क्षत्रिय स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि तुलना का आधार उनकी जाति नहीं वरन् वीरता एवं साहस था।  


( स ) ब्राह्मण थे- BRAHMIN

आधुनिक विद्वानों का विचार है कि सातवाहन ब्राह्मण थे। इस मत के समर्थकों में सेनार्ट , ब्यूलर व त्रिपाठी प्रमुख हैं। हेमचन्द्रराय चौधरी भी उन्हें ब्राह्मण ही मानते हैं परन्तु उनका विचार है अपने मत के समर्थन में अग्र तर्क प्रस्तुत करते हैं : कि सातवाहनों में नाग ( वंश ) के रक्त का भी मिश्रण था। सातवाहनों को ब्राह्मण स्वीकार करने वाले विद्वान 

( i ) नासिक लेख में गौतमीपुत्र को ' परशुराम - सा पराक्रमी ब्राह्मण ' कहा गया है। 
( ii ) नासिक लेख में ही एक अन्य स्थान पर उसे क्षत्रियों का दर्प और मान चूर करने वाला कहा गया है। अतः स्पष्ट है कि वह क्षत्रिय न था , ऐसी स्थिति में वह ब्राह्मण ही रहा होगा। 
( iii ) गौतमीपुत्र व वासिष्ठीपुत्र नाम ब्राह्मण गोत्र गौतम व वसिष्ठी पर आधारित हैं। 

अतः स्पष्ट है कि सातवाहन ब्राह्मण रहे होंगे। 



मूल स्थान — ORIGIN OF SAATVAHAN IN HINDI

सातवाहन मूल रूप से कहां के निवासी थे , इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। प्रो . मिराशी का विचार है कि सातवाहनों का मूल स्थान वरार ( विदर्भ ) था। अपने मत का प्रमाण वे वहां पर सातवाहनों की मुद्राओं का मिलना मानते हैं, परन्तु वरार में गौतमीपुत्र शातकर्णि से पूर्व की कोई मुद्रा नहीं मिलती , अतः यह मत उचित प्रतीत नहीं होता। 

जयसवाल , बार्नेट , आदि विद्वानों ने आंध्रदेश की सातवाहनों को मूल निवास स्थान माना है किन्तु वासिष्ठीपुत्र पुलमावी से पूर्व किसी सातवाहन राजा के वहां शासन करने के प्रमाण नहीं मिलते , अतः स्पष्ट है कि आंध्रदेश में सातवाहन बाद में पहुंचे होंगे व उनका मूल निवास स्थान कोई अन्य रहा होगा। 

डॉ . सुवर्थकर के मत में सातवाहन बेल्लारी ( मद्रास ) में रहते थे, किन्तु वहां से सातवाहनों के लेखों व मुद्राओं का न मिलना इस मत को भी अस्वीकार करने के लिए विवश करता है। अधिकांश विद्वानों का विचार है कि सातवाहन मूलतः महाराष्ट्र के निवासी थे, किन्तु शकों द्वारा परास्त किए जाने पर वे कृष्णा व गोदावरी नदियों के मध्य आंध्रदेश में बस गए थे। इनी कारण इन्हें ' आंध्र ' भी कहा जाने लगा। 




( i ) सातवाहनों की अधिकांश मुद्राएं व लेख महाराष्ट्र में भी मिलते हैं। 
( ii ) सातवाहन लेखों में महाराष्ट्रीय प्राकृत का प्रयोग किया गया है। 
( iii ) सातवाहन काल की गुफाएं ( नासिक , कार्ले , आदि ) महाराष्ट्र में ही स्थित हैं। 

अतः सातवाहनों का मूल निवास स्थान महाराष्ट्र ही मानना उचित प्रतीत होता है। 

सातवाहनों के उदय की तिथि- RISE OF SAATVAHANAS

सातवाहनों के उदय की तिथि अत्यन्त विवादग्रस्त है तथा अनेक विद्वानों ने इस सम्बन्ध में मत प्रस्तुत किए हैं । स्मिथ रैप्सन , आदि विद्वान मत्स्य पुराण के इस आधार पर कि आन्ध्रों ने साढ़े चार सौ वर्ष तक शासन किया, सातवाहनों के शासन का प्रारम्भ तृतीय शती ई . पू . के अन्तिम चरण में मानते हैं किन्तु इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि एक अन्य पुराण ( वायु पुराण ) आंध्रों के शासन की अवधि तीन सौ वर्ष ही मानता है। 

अतः यह मत तर्कसंगत नहीं है । डॉ . भण्डारकर का विचार है कि सातवाहनों के शासन का प्रारम्भ 72 ई . पू . में हुआ किन्तु ऐसा मानना भी उचित नहीं है क्योंकि 72 ई . पू . से 27 ई . पू . तक कण्वों ने राज्य किया था। अतः सातवाहनों के शासनकाल का प्रारम्भ 27 ई . पू . में हुआ होगा । इसी मत को अधिकांश इतिहासकार स्वीकार करते हैं। इस मत की पुष्टि नानाघाट व हाथीगुम्फा अभिलेखों से भी होती है । अतः सातवाहनों के शासनकाल का प्रारम्भ 27 ई . पू . से ही माना जाना चाहिए। 

संस्थापक एवं अन्य शासक- FOUNDER OF SATVAHAN VANSH

सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था जिसे पुराणों में शिप्रक , सिन्धुक व शिशुक भी कहा गया है। सिमुक ने कण्वों व बची हुई शुंग - शक्ति को समाप्त कर सातवाहनों के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की । स्वतन्त्र शासक बनने से पूर्व सम्भवतः यह सामन्त के रूप में शासन करता था। 

तत्कालीन शासकों में निम्नवत् शासक मुख्य थे : 

( अ ) कृष्ण – सिमुक के पश्चात् उसका अनुज कृष्ण राजा बना जिसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने का प्रयत्न किया। नासिक लेख से ज्ञात होता है कि उसके शासनकाल में नासिक में एक गुहा का निर्माण हुआ । इससे पता चलता है कि उसने नासिक तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था। 

( ब ) शातकर्णि प्रथम-कृष्ण के पश्चात् शातकर्णि प्रथम शासक बना । यह एक शक्तिशाली एवं पराक्रमी शासक था। पुराणों में शातकर्णि को कृष्ण का पुत्र कहा गया है किन्तु नानाघाट के लेख के आधार पर कुछ विद्वान इसे सिमुक का पुत्र मानते हैं जो अधिक उचित प्रतीत होता है। शातकर्णि के विषय में हाथीगुम्फा अभिलेख , सांची अभिलेख व नानाघाट अभिलेख से जानकारी प्राप्त होती है। 

शातकर्णि ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा वास्तविक अर्थों में सातवाहन साम्राज्य की नींव डाली। शातकर्णि की राजधानी प्रतिष्ठान थी तथा उसके साम्राज्य में मालवा , उत्तरी कोंकण व महाराष्ट्र का अधिकांश भाग सम्मिलित था। 
शातकर्णि की मृत्यु के समय उसके दोनों पुत्र शक्तिश्री व वेदश्री अल्पवयस्क थे, अतः उनकी माता नागनिका ने उनके संरक्षक के रूप में कार्य करते हुए शासन किया।

 इसके बाद कुछ वर्षों का सातवाहन - वंश का इतिहास अन्धकार में विलुप्त है। पुराणों में यद्यपि इस काल के राजाओं की सूची है , किन्तु वह प्रामाणिक नहीं है । फिर भी इतना निश्चित है कि यह सातवाहन वंश की अवनति का समय था। शीघ्र ही सातवाहन - वंश में शक्तिशाली शासक का जन्म हुआ, जिसने पुनः सातवाहनों की शक्ति को उन्नति की चरमसीमा तक पहुंचाया, यह शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि था। 

( स ) गौतमीपुत्र शातकर्णि – शातकर्णि प्रथम की मृत्यु के उपरान्त सातवाहन वंश अवनति की ओर अग्रसर होने लगा था। इसका कारण शातकर्णि प्रथम के निर्बल एवं योग्य उत्तराधिकारियों के अतिरिक्त शकों के साथ सातवाहनों का संघर्ष था। 

उस समय शक निरन्तर अपनी शक्ति एवं साम्राज्य को बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे, अतः सातवाहनों की स्थिति दयनीय होती जा रही थी। ऐसे विपरीत समय में सातवाहन वंश के शासक के रूप में गौतमीपुत्र शातकर्णि का आविर्भाव हुआ, जिसने न केवल पतन की ओर अग्रसरित सातवाहन वंश को दृढ़ता प्रदान की वरन् सातवाहन साम्राज्य का विस्तार भी किया। 

इसी कारण गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहन वंश का पुनरुद्धारक कहा जाता है। 

उससे सम्बन्धित विस्तृत जानकारी निम्न प्रकार है : 

( i ) तिथि- पुराणों से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का 23 वां शासक था। यद्यपि इसके शासनकाल की तिथि में मतभेद है, परन्तु अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि वह 106 ई . में शासक बना था। 

पुरातात्विक स्रोतों से ज्ञात होता है कि उसने अपने शासन के 24 वें वर्ष में कुछ साधुओं को भूमि दान में दी थी अतः उसने 130 ई . ( 106 + 24 = 130 ई . ) तक अवश्य शासन किया होगा । इस प्रकार गौतमीपुत्र शातकर्णि का शासनकाल 106 ई . से 130 ई . तक माना जाता है। 

( ii ) चरित्र – विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि एक योग्य . कुशल एवं दूरदर्शी शासक होने के साथ ही जनता में लोकप्रिय एवं आदर का पात्र था। गुणी होने के साथ ही वह अत्यन्त रूपवान तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व का स्वामी था। वह बलिष्ठ शरीर एवं लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति था। अपनी माता का वह अत्यन्त आदर करता था । साहसी एवं शक्तिशाली होने के साथ ही वह अत्यन्त दयालु शासक था। 

वह अपने शत्रुओं के प्रति भी सद्भाव रखता था। दयालु होने के साथ - साथ वह दानशील भी था। नासिक अभिलेख से उसके द्वारा दिए गए दानों के विषय में पता चलता है। गौतमीपुत्र एक प्रजावत्सल शासक था तथा उसी के अनुरूप वह कार्य करता था । प्रजा की खुशी के लिए वह उत्सव एवं समारोह भी करवाता था । गौतमीपुत्र ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा उसके विकास के लिए उसने प्रयत्न भी किए। 

गौतमीपुत्र यद्यपि ब्राह्मण - धर्म का अनुयायी था किन्तु वह धार्मिक क्षेत्र में असहिष्णु न था। गौतमीपुत्र ने विन्ध्यपति व राजराजा, आदि उपाधियां धारण की थीं । उसकी मृत्यु 130 ई . में हुई। 

( iii ) विजयें एवं साम्राज्य विस्तार गौतमीपुत्र को सीमाओं पता चलता है। शातकर्णि सातवाहन वंश का सबसे प्रतापी शासक था। वह साम्राज्यवादिता में विश्वास रखता था, अतः विभिन्न विजयों के परिणामस्वरूप उसने अपने साम्राज्य की दूर - दूर तक विस्तृत किया। 

गौतमीपुत्र शातकर्णि की विजयों के विषय में नासिक अभिलेख से अभिलेख में उसे ' क्षत्रियों का दर्प और मान को चूर करने वाला ' तथा ' परशुराम - सा पराक्रमी एक ब्राह्मण कहा गया है। गौतमीपुत्र शातकर्णि के शासक बनने से पूर्व शकों ने सातवाहनों के अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। गीतमीपुत्र ने शकों को परास्त करके न केवल खोए हुए प्रदेशों को प्राप्त किया वरन् अपने साम्राज्य का विस्तार भी किया। 

शकों को परास्त करने से उसका गुजरात, सौराष्ट्र, पश्चिमी राजपूताना, मालवा, बरार तथा उत्तरी कोंकण पर अधिकार हो गया। नासिक अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र ने शकों, यवनों, पल्लवी एवं क्षहरातों का विनाश कर सातवाहनों की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित की। 

नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र द्वारा जीते हुए प्रदेशों की सूची भी दी गई है जिससे ज्ञात होता है कि उसने क्षहरातों का विशेष रूप से नाश किया था। नासिक से चांदी के सिक्कों का जो भाण्ड मिला है , उसमें नहपान ( क्षहरात शासक ) के ऐसे सिक्के भी हैं जिनको गीतमीपुत्र ने अपनी राजमुद्रा से पुनः अंकित किया है। अतः क्षहरातों पर उसकी विजय प्रमाणित हो जाती है।

नासिक गुहा लेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की विजयों का उल्लेख करते हुए कहा गया है , " उसके वाहनों ने तीन समुद्रों का जल पिया। उसका राज्य ऋषिक ( गोदावरी नदी का तटवर्ती प्रदेश ) , मूलक ( पैठन का निकटवर्ती क्षेत्र ) , कुकुर ( उत्तरी काठियावाड़ ) , अपरान्त , अनूप , विदर्भ , अवन्ति तक विस्तृत था। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि अपनी विजयों के द्वारा उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। गौतमीपुत्र का साम्राज्य पूरब में वरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक तथा उत्तर में सौराष्ट्र एवं मालवा से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक विस्तृत था। 

( द ) वासिष्ठीपुत्र पुलमावी- 

गौतमीपुत्र शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वासिष्ठीपुत्र 130 ई . में शासक बना। वासिष्ठीपुत्र ने 130 ई . से 154 ई . तक शासन किया । यह भी अपने पिता गौतमीपुत्र के समान एक शक्तिशाली एवं साहसी शासक था। 

वासिष्ठीपुत्र ने आंध्रदेश पर विजय प्राप्त करके उसे पुनः सातवाहनों के अधीन कर लिया। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने महाक्षत्रप रुद्रदामन की कन्या से विवाह किया था किन्तु किन्हीं कारणोंवश रुद्रदामन ने उसे दो बार परास्त किया , किन्तु रुद्रदामन ने अपने दामाद वासिष्ठीपुत्र की हत्या नहीं की। 

इस कथन की पुष्टि कन्हेरी के अभिलेख से भी होती है। वासिष्ठीपुत्र को इस पराजय का सामना सम्भवतः 150 ई . के लगभग करना पड़ा था। 

सातवाहन वंश का पतन - 

वासिष्ठीपुत्र के पश्चात् सातवाहन वंश का अन्तिम प्रतापी शासक यज्ञश्री शातकर्णि हुआ जिसने 165 ई . से 193 ई . तक शासन किया। शातकर्णि अत्यन्त शक्तिशाली शासक था तथा इसने सम्भवतः शकों पर भी विजय प्राप्त की थी। 

उसकी मुद्राएं गुजरात , काठियावाड़ , पूर्वी मालवा व मध्य प्रदेश में मिलती हैं जिनसे इन प्रदेशों का उसके राज्य में होना प्रमाणित होता है। उसका साम्राज्य मुख्यतः महाराष्ट्र एवं आंध्र देश तक विस्तृत था। 

यज्ञश्री शातकर्णि की कुछ मुद्राओं पर जहाज व शंख के चिह्न अंकित होने से ऐसा प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य सागर - तट तक फैला हुआ था । यज्ञश्री शातकर्णि के उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल थे तथा उनके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। 
किन कारणों से सातवाहन - वंश का पतन हुआ , यह कहना कठिन है किन्तु इतना निश्चित है कि शासकों की दुर्बलता , आन्तरिक संघर्ष व बाह्य आक्रमणों का इस वंश के पतन में प्रमुख योगदान रहा। 

आभीर - वंश के शासकों ने महाराष्ट्र तथा पल्लवों व इक्ष्वाकु वंश ने पूर्वी दक्षिणापथ पर अधिकार करके सातवाहनों की शक्ति को अत्यन्त क्षीण कर दिया। इस प्रकार तीसरी शताब्दी तक सातवाहन - वंश विलुप्त हो गया। 

सातवाहन वंश ( THE SATAVAHANAS )

हमसे जुड़ने के लिए

Youtube Channel_  Aurjaniye with Rd

Youtube Channel_ Deepak amey

Website-               www.aurjaniy.com

Facebook page-    Aurjaniye

Instagram-              Aurjaniye

Instagram-              therohitt01

Instagram-              thedeepakrajpoot

तो दोस्तों अगर आपको यह जानकारी अच्छी लगे तो हमें कमेंट करके जरुर बतायें , और इसे शेयर भी जरुर करें।

औरजानिये। Aurjaniye

For More Information please follow Aurjaniy.com and also follow us on Facebook Aurjaniye | Instagram Aurjaniye and Youtube  Aurjaniye with rd

RELATED POSTS:-

LOK  NIGAM IN HINDI

 भारतीय वायु परिवहन 

Asia the biggest continent

Bhutan hindi

Bangladesh hindi

Sri Lanka in hindi

PAKISTAN IN HINDI

Bharat Ek Nazar main

NEPAL IN HINDI

NITROGEN USAGE EFFICIENCY HINDI

पृथ्वी का भूगर्भिक इतिहास

जीव मण्डल biosphere reserves in India

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version