महात्मा गाँधी के आर्थिक विचार | Economic Thoughts of Mahatma Gandhi in Hindi

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महात्मा गाँधी के आर्थिक विचार | Economic Thoughts of Mahatma Gandhi in Hindi

(Economic Thoughts of Mahatma Gandhi) गाँधीजी के आर्थिक विचारों का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) अर्थशास्त्र का उद्देश्य (Aim of Economics)

महात्मा गाँधी के विचार नैतिकबाद (Ethical), समाजवाद (Socialism) और व्यक्तिवाद (Individualism) का सम्मिश्रण हैं। उन्होंने पश्चिमी देशों के विचारकों पीगू, मार्शल, रोबिन्स आदि की तरह अर्थशास्त्र को कल्याणकारी शास्त्र तो माना है, परन्तु कल्याणकारी अर्थव्यवस्था (Welfare Economy) की प्राप्ति के उपायों के दृष्टिकोण से उनके विचार पाश्चात्य विचारकों के विचारों से सर्वथा भिन्न हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने भौतिक समृद्धि को कल्याणकारी अर्थव्यवस्था का आधार माना और इसके लिए उन्होंने अधिकाधिक आर्थिक विकास की नीति का समर्थन किया। परन्तु गाँधीजी ने ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त को वास्तविक मानव कल्याण का स्रोत माना।

(2) अध्ययन की प्रणाली (Method of Study)

महात्मा गाँधी ने अर्थशास्त्र के लिए जिस प्रणाली को अपनाया वह अर्थशास्त्रियों के द्वारा स्वीकार की गई प्रणालियों से सर्वथा भिन्न है। आधनिक अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए आगमन एवं निगमन दोनों प्रणालियाँ स्वीकार की हैं। गाँधीजी ने प्रमाण एवं तर्क के साथ आत्म-शक्ति से प्रेरित नैतिकतापूर्ण अध्ययन प्रणाली को अपनाया है। आलोचकों ने गाँधीजी की प्रणाली को काल्पनिक, अव्यावहारिक तथा अवैज्ञानिक कहकर पुकारा है। उनके अनुसार, अर्थशास्त्र का नैतिकता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

(3) मशीनों का प्रयोग (Use of Machines)

गाँधीजी आधुनिक तकनीकी सभ्यता को हिंसा, निराशा, असन्तोष, क्रान्तियों और युद्धों के लिए उत्तरदायी ठहराते थे। उन्होंने यन्त्रों की तुलना ‘साँप के बिलों’ से की थी और आधुनिक सभ्यता को ‘शैतानों की सभ्यता’ कहकर पुकारा गाँधीजी मशीनों के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से बड़ी मशीनें श्रमिकों को बेकार कर देती हैं, नगर की जलवायु को दूषित कर देती हैं तथा आर्थिक संकटों को बढ़ावा देती हैं। अर्थात् उनके विचार से मशीनों के प्रयोग से जितना उत्पादन सैकड़ों श्रमिक पृथक् पृथक् करते हैं, उतना उत्पादन एक दो श्रमिक ही कर सकते हैं, जिससे बेरोजगारी फैलती है। अधिक उत्पादन को सम्भव बनाकर मशीन आर्थिक संकटों की उत्पत्ति में योग देती है। वास्तव में गाँधीजी मशीनों के विरुद्ध नहीं थे, वरन् मशीनों के बढ़ते हुए प्रयोग की प्रवृत्ति के विरोधी थे।

(4) विकेन्द्रीकरण (Decentralization)

केन्द्रीयकरण से अभिप्राय एक ही प्रकार के उद्योगों के एक ही स्थान विशेष पर केन्द्रित हो जाने से होता है तथा विकेन्द्रीकरण से तात्पर्य किसी उद्योग विशेष की विभिन्न इकाइयों की स्थापना किसी एक स्थान विशेष पर न होकर विभिन्न स्थानों पर होने से है। गाँधीजी ने उद्योगों के केन्द्रीयकरण के दोषों को स्वयं देखा था। उनके मतानुसार विशाल उत्पादन से सट्टेबाजी एवं धोखेबाजी की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन प्राप्त होता है और इस प्रकार अर्थव्यवस्था का आधार हिंसा एवं शोषण हो जाता है। वे विकेन्द्रीकरण के पक्ष में थे।

(5) कुटीर उद्योगों का विकास (Development of Cottage Industries)

गाँधोजी कुटीर उद्योगों को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। समाज में आर्थिक समानता लाने को दृष्टि से गाँधीजो कुटीर उद्योगों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में कुटीर उद्योग रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर गाँधीजी ने ‘चर्खा आन्दोलन’ चलाया। गाँधीजी के अनुसार, “भारत का मोक्ष उसके कुटीर उद्योग-धन्धों में निहित है।”

(6) ग्रामों में पुनर्जीवन का संचार (Regeneration of Villages)

गाँधीजी के शब्दों में, “मेरा विश्वास है और मैंने इस बात को असंख्य बार दोहराया है कि भारत अपने चन्द शहरों में नहीं बल्कि लाखों गाँवों में बसा हुआ है लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों की आवश्यकताओं को पूरा करने में लगा रहे। हमने कभी यह सोचने को तकलीफ हो नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न एवं शरीर ईंकने जितना कपड़ा मिलता है अथवा नहीं और धूप तथा वर्षा से बचने के लिए छप्पर मिलता है अथवा नहीं।” गाँधीजी ने ग्राम सुधार आन्दोलन चलाया। ग्राम सुधार आन्दोलन से उनका तात्पर ग्रामों को आत्मनिर्भर बनाने से था। वे चाहते थे कि गाँव वाले अपना अनाज, साग-सब्जियाँ एवं फल तथा खादी स्वयं पैदा करें। इस प्रकार गाँधीजी आदर्श गाँवों को स्थापित करके उनको आत्मनिर्भर बनाने के पक्ष में थे।

(7) आर्थिक स्वतन्त्रता (Economic Independence)

गाँधीजी राजनैतिक स्वतन्त्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतन्त्रता के भी प्रबल समर्थक थे। वे प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में थे। उनके अनुसार जब तक व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जाती तब तक उसका पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। गाँधीजी पूँजीपतियों एवं श्रमिकों के विरोध में नहीं थे परन्तु पूँजीपति जिस कार्यप्रणाली को अपनाते थे गाँधीजी उसका विरोध अवश्य करते थे।

(8) अहिंसात्मक विचारधारा 

महात्मा गाँधी के विचार सत्य एवं अहिंसा से ओत प्रोत थे। पश्चिमी भौतिकवाद एवं हिंसात्मक कांवाहियों का गाँधीजी ने सदैव विरोध किया तथा भारतीयों को अहिंसात्मक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। महात्मा गाँधी ने भौतिकता को कम महत्व प्रदान किया तथा कहा अत्यधिक भौतिकता हिंसा की जन्मदात्री होती है। समाजवाद से प्रेरित होते हुए भी महात्मा गाँधी ने कार्ल मार्क्स के हिंसात्मक विचारों को कभी वरीयता प्रदान नहीं की। वह एक ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें आर्थिक प्रगति एवं सामाजिक न्याय साथ-साथ चल सकें। गाँधीजी एक ऐसा समाज चाहते थे जिसमें सभी के लिए सर्वाधिक भलाई की व्यवस्था हो। इसे ‘सर्वोदय’ का नाम दिया गया।

(9) ट्रस्टीशिप (Trusteeship)

गाँधीजी ने प्रन्यास के विचार का अनुमोदन श्रमिकों और पूँजीपतियों के संघर्षों का अन्त करने के लिए किया। उन्होंने कहा कि समाज में विभिन्न उद्योगों में लगी पूँजी पर समस्त समाज का अधिकार माना जाना चाहिए। पूँजोपति केवल प्रन्यासी (Trustee) का काम करें, जिससे श्रमिक वर्ग पूँजीपतियों को अपने शुभचिन्तकों के रूप में देखेगा और उनके प्रति सद्भावना रखेगा। सम्पत्ति का जो भाग पूँजीपति व्यक्तिगत उपयोग के लिए आवश्यक न समझें, उसे सार्वजनिक हित पर खर्च किया जाये। इस प्रकार प्रन्यास (Trusteeship) की भावना से औद्योगिक संघर्षों का अन्त हो सकेगा और अधिकतम जन कल्याण सम्भव होगा।

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