भारत में यूरोपीय शक्तियों का क्रमबद्ध Bharat main Europe shaktiyo ka Aagman

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भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन 

भारत में अनेक यूरोपीय शक्तियों का आगमन शुरू हुआ जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं 

पुर्तगीज – Portugees

1498 ई . में वास्कोडिगामा के भारत आगमन से पुर्तगालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू हुआ । इसके बाद पुर्तगालियों का भारत आने का क्रम जारी हो गया । 9 मार्च , 1500 ई . को 13 जहाजों के एक बेड़े के साथ पेंड्रोम अल्बरेज केबल जल मार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ जिसने कालीकट के निकट अपना डेरा डाला । 

पुर्तगालियों ने भारत में अपनी व्यापारिक कोठियाँ 

  • गोवा
  • कालीकट दमन
  • द्वीव एवं हुगली में 

स्थापित की तथा यहीं से अपनी गतिविधियों का संचालन किया । 1505 ई . में फ्रांसिस्को द अल्मीडा भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनकर भारत आया । उसने सामुद्रिक नीति को अधिक महत्व देते हुए हिन्द महासागर में पुर्तगालियों की स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया । अल्मीडा 1509 ई . तक भारत में रहा । अल्मीडा के बाद अल्फांसो द अल्बुकर्क 1509 ई . में पुर्तगालियों का वासयराय बनकर भारत आया । उसने 1510 ई . में बीजापुर के शासक युसुफ आदिलशाह से गोवा को छीनकर उस पर अपना अधिकार स्थापित किया । Europ invasion to india

जैसे – जैसे पुर्तगालियों की आबादी बढ़ती गई पुर्तगालियों ने भारतीय स्त्रियों से विवाह करने शुरू कर दिये । 1518 ई . में पुर्तगालियों ने कोलम्बो एवं मलक्का में अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित किये । इसके साथ ही गोवा में पुर्तगालियों ने अपनी सत्ता एवं संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र स्थापित किया । 

अपनी शक्ति के विस्तार के साथ ही पुर्तगालियों ने भारतीय राजनीति में भी अपना हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया । भारत में आने वाला पुर्तगाली गवर्नर निनोडी कूल्हा जो नवम्बर , 1529 ई . में आया था , उसने मुगल सम्राट् हुमायूँ का गुजरात के शासक बहादुरशाह से संघर्ष होने पर बहादुरशाह को सैनिक सहायता प्रदान की थी । इसके बदले में उसने 1534 ई . में बसई का द्वीप तथा उसके अधीन प्रदेश एवं राजस्व को अपने हवाले किया । कूल्हा के शासनकाल में पुर्तगालियों ने बंगाल में भी अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयत्न किया । इसके साथ ही पुर्तगालियों ने हुगली को अपना मुख्यालय बनाया और वहीं पर बस गये । 

उसके बाद गार्विया डी नौरोन्हा पुर्तगाली उपनिवेशों का गवर्नर बनकर भारत आया । उसने तुर्की के विरुद्ध भारत पर किये गये आक्रमण में अपनी सहायता प्रदान कर भारतीय शासकों की रक्षा की इसके बदले में उसने 1539 ई . में एक सन्धि के तहत दीव को अपने अधिकार में कर लिया इन राजनीतिक हस्तक्षेपों का एक स्वाभविक परिणाम यह भी हुआ कि वे कालीकट के राजा से , जिसकी समृद्धि सौदागरों पर काफी निर्भर थी , शत्रुता करने लगे । वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से , जिसमें कोचीन का राजा भी शामिल था , सन्धियाँ एवं समझौता इत्यादि करने लगे धीरे – धीरे पुर्तगालियों ने भारत में अन्य अनेक महत्वपूर्ण उपनिवेश स्थापित कर लिये , जैसे दमन , सालसट , चौल , बम्बई , मद्रास तथा उसके निकट सैण्ट टोम ( मेलापुर ) तथा बंगाल में हुगली आदि । उन्होंने श्रीलंका के एक बड़े भाग पर भी अधिकार कर लिया । 

डच Dutch 

डचों के भारत आने का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य दक्षिण – पूर्व एशिया के मसाला बाजारों में सीधा प्रवेश करना था । डच लोग मूल रूप से हालैण्ड के मूल निवासी थे 

भारत में ‘ डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘ की स्थापना 1602 ई . में की गयी थी । भारत में इससे पूर्व आने वाला सबसे पहला डच नागरिक कारनेलिस डेहस्तमान था ।

 डचों ने पुर्तगालियों से संघर्ष करते – करते भारत के सभी महत्वपूर्ण मसाला उत्पादन के क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया । 1605 ई . में पुर्तगालियों से डचों ने अंवायना अपने अधिकार में कर लिया तथा मसाला द्वीप ( इण्डोनेशिया ) में उन्हीं को हराकर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । जकार्ता को जीतकर भी उन्होंने 1619 ई . में वहाँ के खण्डहरों पर वैटेविया नामक नगर बसाया । 1639 ई . में उन्होंने गोवा पर घेरा डाला और 1641 ई . में मलक्का पर अपना अधिकार कर लिया । 

इसके साथ ही 1658 ई . में सीलोन पर भी अधिकार कर लिया । डचों ने गुजरात में कोरोमण्डल समुद्र तट , बंगाल , बिहार , उड़ीसा में भी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित की । 

डचों ने अपनी महत्वपूर्ण कोठियाँ 

  • मुसलीपट्टम
  • पुलीकट
  • सूरत
  • विमलीपट्टम
  • चिनसुरा
  • कासिम बाजार
  • कड़ा बाजार
  • पटना
  • बालासोर
  • नागपट्टम आदि स्थानों पर स्थापित की थीं । 

डच लोग अपना व्यापार मसालों , नील , कच्चे रेशम , शीशा , चावल एवं अफीम से करते थे । 

डचों का भारत में अन्तिम रूप से पतन 1759 में अंग्रेजों एवं डचों के मध्य हुए ‘ वेदरा के युद्ध ‘ से हुआ । 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी East India Company 

16 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इंग्लैण्ड की सामुद्रिक शक्ति का उत्कर्ष आरम्भ हुआ ।1580 ई . में फ्रांसिस ड्रेक नामक नाविक ने सामुद्रिक यात्रा की और दुनिया का चक्कर लगाया 1588 ई . में इंग्लैण्ड के नाविकों ने स्पेन के प्रसिद्ध जंगी बेड़े आर्मेडा को नष्ट – भ्रष्ट कर दिया तथा इसी प्रकार की अन्य घटनाओं ने इंग्लैण्ड के व्यापारियों को पूर्व के साथ व्यापार के लिए एक कम्पनी बनाने के लिए प्रोत्साहित किया । 
31 दिसम्बर , 1600 ई . को रानी एलिजाबेथ ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को पूर्वी देशों के साथ व्यापार के लिए अधिकार पत्र ( चार्टर ) प्रदान किया । प्रारम्भ में कम्पनी विभिन्न व्यापारी समूहों के अलग – अलग बेड़े व्यापारिक यात्राओं पर भेजा करती थी और वे व्यापारी लाभ को आपस में बाँट लेते थे । 
प्रारम्भिक वर्षों में कम्पनी के व्यापारियों ने जावा , सुमात्रा और मलक्का की यात्राएँ कीं । सबसे पहले 1609 ई . में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित करने का प्रयत्न किया । केप्टिन हॉकिन्स नामक कम्पनी का एक प्रतिनिधि मुगल सम्राट् जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ । 
उसने सम्राट से सूरत में एक व्यापारिक कोठी बनाने की अनुज्ञा माँगी । जहाँगीर अनुज्ञा देने को राजी था , किन्तु पुर्तगालियों की शत्रुता तथा सूरत के कुछ व्यापारियों के विरोध के कारण उसने अन्त में अनुज्ञा देने से इन्कार कर दिया । 1611 ई . में हॉकिन्स स्वदेश लौट गया । इसी बीच इंग्लैण्ड का एक छोटा – सा जहाजी बेड़ा सूरत आ पहुँचा और 1612 ई . में उसने पुर्तगाली बेड़े को परास्त कर दिया । 1613 ई . में जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत में कोठी कायम करने की अनुज्ञा प्रदान कर दी । इस घटना के कुछ समय उपरान्त ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सर टॉमस रो को इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में मुगल दरबार में भेजा ।
रो 1615 से 1619 ई . तक मुगल दरबार में ठहरा । रो मुगल सम्राट के साथ एक व्यापारिक सन्धि करना चाहता था । उसमें उसे सफलता नहीं मिली किन्तु वह मुगल सम्राट् से कम्पनी के लिए कुछ रियायतें प्राप्त करने में सफल रहा । उसे मुगल साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों में कोठियाँ स्थापित करने की अनुज्ञा मिल गयी । 

फ्रांसीसी French in India

भारत में फ्रांसीसी सबसे बाद में आये । यहाँ पैर जमाने के उनके प्रारम्भिक प्रयत्न डचों के विरोध के कारण असफल रहे । 1664 ई . में फ्रांस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ कोलबेयर ने फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की । इस कम्पनी पर फ्रांसीसी सरकार का पूर्ण नियन्त्रण था ।
1667 ई . में फ्रांसिस कारेन की अध्यक्षता में एक अन्य अभियान दल भारत पहुँचने में सफल रहा । कम्पनी व्यापारियों की निजी संस्था नहीं थी , बल्कि सरकार का ही एक विभाग थी । 1668 ई . में फ्रांसीसियों ने अपनी कोठी सूरत में स्थापित की और 1669 ई . में दूसरी कोठी मछलीपट्टम में कायम की गयी । 1672 में उन्होंने हास के निकट सेण्ट टॉम पर , जिसे गोलकुण्डा के सुल्तान ने पुर्तगालियों से दस वर्ष पहले जीत लिया था , अधिकार कर लिया । 

इसका परिणाम यह हुआ कि गोलकुण्डा के सुल्तान और डचों ने फ्रांसीसियों के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बना लिया , तब फ्रेंच कम्पनी को सेण्ट टीम डचों के हवाले करना पड़ा और डचों ने उसे गोलकुण्डा के सुल्तान के सुपुर्द कर दिया । 

 

1673 ई . में मछलीपट्टम की फ्रांसीसी कोठी के निदेशक फ्रांक्वा मार्टिन ने वलीकोडापुरम् के शासक शेर खाँ लोदी से एक कोठी के लिए भूमि प्राप्त कर ली । इस प्रकार पाण्डिचेरी की नींव पड़ी । फ्रांक्वा मार्टिन ने पाण्डिचेरी का तेजी से विकास किया । 

बंगाल में फ्रांसीसियों ने 1674 ई . में तत्कालीन मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ से कुछ भूमि प्राप्त कर ली और अच्छी प्रसिद्ध बस्ती चन्द्रनगर की नींव डाली । यूरोप में फ्रांस तथा हॉलैण्ड के बीच युद्ध छिड़ गया जिसमें इंग्लैण्ड ने हॉलैण्ड का साथ दिया । इससे भारत में फ्रांसीसियों की स्थिति को आघात पहुँचा । 1693 ई . में डचों ने पाण्डिचेरी पर अधिकार कर लिया । 1697 ई . में उन्होंने उसे फ्रांसीसियों को वापस लौटा दिया । फ्रांक्वा मार्टिन के नेतृत्व में पाण्डिचेरी ने उन्नति की और भारत में फ्रांसीसियों की सबसे महत्वपूर्ण बस्ती बन गयी । इसके बावजूद फ्रांसीसियों के व्यापार में गिरावट आती रही और अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्हें अपनी बंटम , सूरत और मछलीपट्टम की कोठियाँ छोड़नी पड़ी । दिसम्बर 1706 ई . में फ्रांक्वा मार्टिन का देहान्त हो गया जिसके फलस्वरूप भारत में फ्रांस की शक्ति का और भी अधिक ह्रास हुआ । 

1720 ई . के बाद फ्रांसीसी कम्पनी की स्थिति में सुधार होने लगा । फ्रांसीसियों ने 1721 ई . में मॉरीशस पर अधिकार कर लिया और अगले दो वर्षों में मछलीपट्टम , कालीकट , माही और यमन भी उनके अधिकार में आ गये । 1739 ई . में उन्होंने कारीकल हस्तगत कर लिया । प्रारम्भ में फ्रांसीसियों का उद्देश्य केवल व्यापारिक था , किन्तु 1740 ई . के बाद उनके मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ जाग्रत होने लगीं । उनके गवर्नर डूप्ले ने भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की योजना बनाई । 

अंग्रेजों ने उसका विरोध किया , फलस्वरूप दोनों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया ।

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