डेविड रिकार्डो के सिद्धान्त | David Ricardo Theory In Hindi
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डेविड रिकार्डो | David Ricardo
- के द्वारा प्रतिपादित अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त
- रिकार्डो द्वारा प्रस्तुत मूल्य सिद्धान्त
- रिकार्डो द्वारा प्रस्तुत मजदूरी सिद्धान्त
- रिकार्डो के लाभ सिद्धान्त
David Ricardo का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त ( Theory of International Trade ) –
रिकार्डो का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धान्त ( Theory of International Trade ) – रिकार्डो ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में एडम एवं प्रकृतिवादियों की तुलना में स्वतन्त्र व्यापार को अधिक महत्व प्रदान किया और उनकी विचारधारा पूर्णरूपेण आशायुक्त है । इसको वे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार से लाभदायक समझते थे ।
रिकार्डो ने स्वतन्त्र व्यापार के व्यापक दृष्टिकोण का समर्थन विशेषकर निम्न तीन कारणों से किया है david ricardo theory:
- स्वतन्त्र व्यापार से प्रादेशिक श्रम विभाजन को कार्यरूप से परिणित करना सरल हो जाता है ।
- लगान की वृद्धि , खाद्यान्न की बढ़ती हुई कीमतों एवं लाभ की घटती हुई प्रवृत्ति को स्वतन्त्र व्यापार द्वारा विदेशों से सस्ता अनाज आयात करके रोका जा सकता है ।
- स्वतन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा आयात – निर्यात के असन्तुलन को समाप्त कर दिया जाता है अर्थात् प्रत्येक देश का आयात और निर्यात बराबर हो जायेगा तथा प्रत्येक देश में उतना ही धन बना रहेगा जितना उसके लिए आवश्यक है ।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रणाली के अन्तर्गत रिकार्डो ने तुलनात्मक लगान सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । रिकार्डों के विचारानुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार क्षेत्र में यद्यपि एक देश दूसरे की अपेक्षा दो वस्तुएँ सस्ती बना सकता है , किन्तु वह केवल एक ही वस्तु का उत्पादन करेगा , जिसमें उसे तुलनात्मक दृष्टिकोण से अधिक लाभ प्राप्त होता है ।
David Ricardo द्वारा प्रस्तुत मूल्य सिद्धान्त
डेविड रिकार्डो के सिद्धान्त | David Ricardo Theory In Hindi डेविड रिकार्डो ने बताया कि तुष्टि गुण के आधार पर मूल्य का मापन एवं आकलन को उचित नहीं माना जा सकता है । david ricardo theory of value in hindi:
मूल्य दो प्रकार के होते हैं—
- प्रयोग मूल्य एवं
- विनिमय मूल्य । रिकार्डो के अनुसार किसी वस्तु का विनिमय मूल्य दो तत्वों पर निर्भर करता है—
- वस्तु की स्वल्पता एवं
- वस्तु के उत्पादन में लगी श्रम की मात्रा ।
उन्होंने कहा कि बहुत – सी वस्तुओं का मूल्य उनको स्वल्पता के कारण ही ऊँचा होने की प्रवृत्ति रखता है । जिन वस्तुओं को दुर्लभता की श्रेणी में रखा जा सकता है उनकी पूर्ति माँग के साथ लोचदार रहता है । ऐसी वस्तुओं का मूल्य श्रम के.आधार पर निश्चित किया जा सकता है । ,david ricardo book
अतः स्पष्ट है कि दुर्लभ वस्तुओं का मूल्य उनको दुर्लभता की मात्रा पर निर्भर करता है जबकि सामान्य वस्तुओं का मूल्य श्रम की प्रयोग मात्रा के आधार पर निर्धारित होता है । रिकार्डो के अनुसार लगान का मूल्य पर प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि मूल्य लगान को निर्धारित करता है , लगान मूल्य को निर्धारित नहीं करता । डेविड रिकार्डो यद्यपि स्वयं ही अपनी मूल्य सिद्धान्त व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं थे
हालांकि उन्होंने उपभोग मूल्य तथा विनिमय मूल्य में भेद स्पष्ट किया । विनिमय मूल्य को भी उन्होंने दो भागों में वितरित किया—
- सामान्य मूल्य अथवा नैसर्गिक मूल्य एवं
- बाजार मूल्य ।
रिकार्डो के अनुसार पूँजी श्रम का ही एक स्वरूप है इस कारण मूल्य का निर्माण श्रम से होता है । उनके अनुसार श्रम की सभी इकाइयाँ एक समान नहीं होती , अत : बाजारी शक्तियाँ उनके तुलनात्मक मूल्य का सही निर्धारण कर देती हैं ।
David Ricardo द्वारा प्रस्तुत मजदूरी सिद्धान्त
रिकार्डो के मजदूरी सिद्धान्त में स्मिथ के मजदूरी सिद्धान्त तथा माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का सम्मिश्रण मिलता है । वे कहते हैं कि मजदूरी उत्पादन का वह भाग है , जो श्रमिकों को प्राप्त होता है । डेविड रिकार्डो द्वारा प्रतिपादित मजदूरी का सिद्धान्त वास्तव में जीवन – निर्वाह का सिद्धान्त है जो सर्वाधिक आलोचना का शिकार हुआ है ।
रिकार्डो ने टोरेन्स के इस मत को स्वीकार किया कि श्रम एक वस्तु है जिसका एक प्राकृतिक मूल्य तथा दूसरा बाजार मूल्य होता है । प्राकृतिक मूल्य आवश्यकताओं और सुविधाओं के बराबर होता है । इसी आधार पर रिकार्डो ने बताया कि मजदूरी दो प्रकार की हो सकती है ।
- बाजार मजदूरी दर — वह राशि जिस पर श्रम का विनिमय होता है । यह राशि होता है श्रमिकों को मजदूरी के रूप में दी जाती है तथा इसका निर्धारण श्रम की माँग की पूर्ति के द्वारा
- प्राकृतिक मजदूरी दर — मजदूरी की प्राकृतिक दर वह है जो श्रमिक तथा उसके परिवार के जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त है ।
रिकार्डो ने निष्कर्ष तौर पर कहा था श्रमिकों को उससे अधिक मजदूरी की आशा नहीं करनी चाहिए जो उन्हें तथा उनके परिवार वालों को जीवित रखने के लिए पर्याप्त है । रिकार्डो का लगान सिद्धांत pdf
David Ricardo के लाभ सिद्धान्त
रिकार्डो का जन्म सन् 1772 में लन्दन में हुआ था । सन् 1799 में रिकार्डो ने एडम स्मिथ की पुस्तक ‘ Wealth of Nations ‘ का अध्ययन किया तथा उनकी रुचि अर्थशास्त्र की ओर हो गयी ।
उन्होंने अर्थशास्त्र की आधार गतिविधियों पर काफी लिखा है । उनके कई सिद्धान्त आज तक मान्य हैं । उनके द्वारा प्रस्तुत ‘ लाभ का सिद्धान्त ‘ अत्यन्त महत्वपूर्ण है । डेविड रिकार्डो लाभ तथा ब्याज , दोनों को पूँजी का प्रतिफल मानते हैं । उनके अनुसार , ” आर्थिक प्रगति होने के साथ लाभ की मात्रा में कमी होने लगती है , क्योंकि समाज में धन की प्रगति के साथ – साथ लगान और श्रम की मजदूरी में वृद्धि होने लगती है , इस कारण लाभ की मात्रा कम होती जाती है ।
उनके अनुसार कुल उत्पादन से लगान निरन्तर बढ़ने लगता है , जिसका प्रमुख कारण कृषि में ह्रासमान प्रतिफल का नियम लागू होना है । लगान की राशि निकालकर शेष भाग को भू – स्वामी श्रमिकों तथा पूँजीपतियों को आपस में बाँटने के लिए दे देता है । ऐसी स्थिति में यदि श्रम के पारिश्रमिक में वृद्धि होती है , तो निश्चित रूप से पूँजीपतियों के लाभ में कमी होगी । अपने लाभ सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए रिकार्डो कहते हैं कि उपर्युक्त परिस्थितियों में श्रमिक और पूँजीपति के हितों में टकराव होता है तथा इन दोनों वर्गों में संघर्ष की स्थिति बन जाती है ।
उनका लाभ सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि सामाजिक प्रगति के साथ – साथ लाभ की दरें कम होती जाती हैं जो दीर्घकाल में श्रमिकों के लिए हानिकारक सिद्ध होती हैं । इसका प्रमुख कारण विनियोग के स्तर में लगातार गिरावट होता है जिससे रोजगार के निरन्तर कम होने की सम्भावना होती है ।
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